Thursday, November 11, 2010

वह सूरतें इलाही किस देस बस्तियाँ है..
अब जिनके देखनेको आँखे तरस्तियाँ है..

बरसात का तो मौसम कब का निकल गया पर
मिजगां की यह घटायें अब तक बरस्तियाँ है..

क्यों कर ना हो यह ज़ख्मी शीशा सा दिल हमारा
उस शौक की निगाहें पत्थर में धस्तियाँ है..

कीमत में उनकी गो हम दो जुग को दे चुके है..
उस यार की निगाहें किस पर भी सस्तियाँ है..

जब मैं कहा यह उसे सौदा को अपने मिलके..
इस साल तू है साकी और मैं परस्तियाँ है..

3 comments:

  1. बरसात का तो मौसम कब का निकल गया पर
    मिजगां की यह घटायें अब तक बरस्तियाँ है..

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...आभार

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  2. सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

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  3. simply beautiful!
    keep introducing some more..

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