Sunday, November 15, 2009

गालिब

यह न थी हमारी किस्मत, के विसाल- ए- यार होता
अगर और जीते रहते, तो यही इंतज़ार होता

तेरे वादे पर जीये हम, तो यह जान झूट जाना
के ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना, के बंधा था इहेद बड़ा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर ऊस्तुवार होता

कोइ मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर- ए- नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है, के बने हैं दोस्त नासेह
कोइ चारासाज़ होता, कोइ ग़मगुसार होता

रग- ए- संग से टपकता, वो लहू कई फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरारह होता

ग़म अगरचेह जान गुलिस है, पर कहाँ बचाएँ के दिल है
ग़म- ए- इश्क गर न होता, ग़म- ए- रोज़गार होता

कहूँ किस से मैं के क्या है, शब् -ए -ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क- ए- दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता

उसे कौन देख सकता, के यगाना है वो यकता
जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता

ये मसाल- ए- तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'गालिब '
तुझे हम वली समझते, जो न बादा ख्वार होता

6 comments:

  1. गालिब की तो बात ही कुछ और है जैसा कि वे खुद ही कहते हैं ।

    हैं यूं तो दुनिया में सुखनवर कई अच्छे
    कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयाँ और ।

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  2. This is one of my most favorite ghazals of Ghalib, especially the maqta.

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  3. जिंन्दगी यू भी गुजर ही जाती
    क्यो तेरा राहगुजर याद आया

    मैने मजनू पे लडकपन मे "असद "
    संग उठाया था तो सर याद आया

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