Thursday, January 7, 2010

फैज़

गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
धुल  के  निकलेगी  अभी  चश्म  ए  महताब  से  रात
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है ....
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
और  मुश्ताक  निगाहों  की  सुनी  जाएगी
और  मुश्ताक  निगाहों  की  सुनी  जाएगी
और  उन  हाथों  से  मस  होंगे  ये  तरसे  हुए  हाथ
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है....
उनका  आँचल  है  के  रुखसार  के  पैराहन  है
उनका  आँचल  है  के  रुखसार  के  पैराहन  है
कुछ  तो  है  जिस  से  हुई  जाती  है  चिलमन  रंगीन
जाने  उस  ज़ुल्फ़  की  मौहूम  घनी  छावओं  में
टिमटिमाता  है  वो  आवेज़ा  अभी  तक  के  नहीं
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है....
आज  फिर  हुस्न  ए  दिलारा  की  वही  धज  होगी
आज  फिर  हुस्न  ए  दिलारा  की  वही  धज  होगी
वोही  ख्वाबीदा  सी  आँखें  वोही  काजल  की  लकीर
रंग  ए रुखसार  पे  हल्का  सा  वो   गाजे   का  गुबार 
संदली  हाथ  पे  धुंधली  सी  हिना  की  तहरीर
अपने  अफ़्कार  की  अशआर  की  दुनिया  है  यही
जाने  मज़मून  है  यही  शाहिदे  माना  है  यही
अपना  मौजू -ए -सुखन  इनके  सिवा  और  नहीं
तब्बा  शायर  का  वतन  इनके  सिवा  और  नहीं
यह  खूँ  की  महक  है  के  लबे  यार  की  खुशबू
यह  खूँ  की  महक  है....
यह  खूँ  की  महक  है  के  लबे  यार  की  खुशबू
किस  राह  की  - जानिब  से  सबा  आती  है  देखो
गुलशन  में  बहार  आई.... 
गुलशन  में  बहार आई  के  जिंदा  हुआ  आबाद
किस  संद  से  नगमों  की  सदा  आती  है  देखो
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
धुल  के  निकलेगी  अभी  चश्म  ए  महताब  से  रात
गुल  हुई  जाती  है  अफसुर्दा  सुलगती  हुई  शाम
गुल  हुई  जाती  है.....

- फैज़


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