Friday, October 14, 2011

यह आलम...

यह आलम शौक का देखा ना जाए
वोह बुत है या खुदा देखा ना जाए

यह किन नज़रों से तुमने आज देखा
के तेरा देखना देखा ना जाए

हमेशा के लिए मुझसे बिछड़ जा
यह मंज़र बारहां देखा न जाए 

गलत है जो सुना पर आजमा कर
तुझे ऐ बावफा देखा ना जाए

यह महरूमी नहीं पास-ऐ-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा ना जाए

फ़राज़ अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा ना जाये

- अहमद फ़राज़

वो  कोई  और  न  था  चंद  खुश्क  पत्ते  थे
शज़र  से  टूट  के  जो  फ़स्ल-ए-गुल  पे  रोए  थे

अभी  अभी  तुम्हें  सोचा  तो  कुछ  न  याद  आया
अभी  अभी  तो  हम  एक -दुसरे  से  बिछड़े   थे

तुम्हारे  बाद  चमन  पर  जब  इक  नज़र  डाली
कलि  कलि  में  खिज़ां  के  चिराग  जलते  थे

तमाम  उम्र  वफ़ा  के  गुनाहगार  रहे
ये  और  बात  की  हम  आदमी  तो  अच्छे  थे

शब् -ए -खामोश  को  तनहाई  ने  ज़बान  दे  दी
पहाड़  गूंजते  थे  दश्त  सनसनाते  थे 

वो  एक  बार  मरे  जिन  को  था  हयात  से  प्यार
जो  ज़िन्दगी  से  गुरेज़ाँ  थे  रोज़  मरते  थे 

नए  ख्याल  अब  आते  हैं  ढल  के  ज़हन  मैं
हमारे  दिल  मैं  कभी  खेत  लहलहाते  थे 

ये  इरतिका  का  चलन  है  के  हर  ज़माने  में
पुराने  लोग  नए  आदमी  से  डरते  थे 

नदीम  जो  भी  मुलाक़ात  थी  अधूरी  थी
के  एक  चेहरे  के  पीछे  हज़ार  चेहरे  थे