Wednesday, May 11, 2011

जलवा ब कद्र ए ज़र्फ़ ए नज़र देखते रहे
क्या देखते हम उनको मगर देखते रहे

अपना ही अक्स पेश ए नज़र देखते रहे
आइना रु ब रु था जिधर देखते रहे

उनकी हरीम ए नाज़ कहाँ और हम कहाँ
नक्श ओ निगार ए पर्दा ए दर देखते रहे

ऐसी भी कुछ फ़िराक की रातें गुज़र गयीं
जैसे उन्ही को पेश ए नज़र देखते रहे

हर लहजा शान ए हुस्न बदलती रही जिगर
हर आन हम जहाँ ए दीगर देखते रहे

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