यह न थी हमारी किस्मत, के विसाल- ए- यार होता
अगर और जीते रहते, तो यही इंतज़ार होता
तेरे वादे पर जीये हम, तो यह जान झूट जाना
के ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना, के बंधा था इहेद बड़ा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर ऊस्तुवार होता
कोइ मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर- ए- नीमकश को
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है, के बने हैं दोस्त नासेह
कोइ चारासाज़ होता, कोइ ग़मगुसार होता
रग- ए- संग से टपकता, वो लहू कई फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरारह होता
ग़म अगरचेह जान गुलिस है, पर कहाँ बचाएँ के दिल है
ग़म- ए- इश्क गर न होता, ग़म- ए- रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब् -ए -ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क- ए- दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता
उसे कौन देख सकता, के यगाना है वो यकता
जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता
ये मसाल- ए- तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'गालिब '
तुझे हम वली समझते, जो न बादा ख्वार होता
Sunday, November 15, 2009
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गालिब की तो बात ही कुछ और है जैसा कि वे खुद ही कहते हैं ।
ReplyDeleteहैं यूं तो दुनिया में सुखनवर कई अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयाँ और ।
This is one of my most favorite ghazals of Ghalib, especially the maqta.
ReplyDeleteजिंन्दगी यू भी गुजर ही जाती
ReplyDeleteक्यो तेरा राहगुजर याद आया
मैने मजनू पे लडकपन मे "असद "
संग उठाया था तो सर याद आया
Ashaji
ReplyDeletewah wah kyaa baat hai..
Ganesh thanks for sharing..
ReplyDeleteHAREKRISHNAJI
ReplyDeleteLajawaab...